‘मैं चौकीदार हूं’ और राष्ट्रवाद का शोर भले ज्यादा लग रहा हो, बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व में भी पहले फेज की वोटिंग को लेकर चिंता पसरी हुई है। इस फेज में कई ऐसी सीटें हैं जिन पर उसके मोहरे सुकून में नहीं हैं।
पहले फेज में 91 सीटों पर वोटिंग होनी है। पिछले लोकसभा चुनाव में इनमें से 32 सीटें बीजेपी को मिली थीं। लेकिन पहले फेज में 20 सीटें ऐसी हैं जिन्हें लेकर इस बार बीजेपी डरी हुई है। अगर पिछले लोकसभा चुनावों के परिणामों से तुलना करें, तो वजह समझी जा सकती है।
दरअसल, बीजेपी को भी अंदाजा है कि उसकी सीटें कम होने जा रही हैं क्योंकि उसे 2014 में अधिकतम सीटें मिल गई थीं और इस बार सीटें कम होनी ही हैं। इस बार की कम-से-कम 8 सीटें ऐसी हैं जहां पिछली बार कांग्रेस को 0.20 से 6 फीसदी कम वोटों की वजह से हारना पड़ा था। ये सीटें हैं- यूपी में सहारनपुर, तेलंगाना में महाबुबा, भोंगीर, महाबुबनाग और चेलवेल्ला, ओडिशा में कोरापुटऔर नबरांगपुर तथा अंडमान निकोबार।
असम में तेजपुर सीट भी इसी तरह की है। यहां कांग्रेस को पिछली बार 8.77 फीसदी वोट ही कम मिले थे। इस बार एनआरसी और नागरिकता बिल के मुद्दे बीजेपी के खिलाफ जाने की संभावना है। बीजेपी में भय की एक और वजह है। पहले फेज में 13 सीटें ऐसी हैं जिनमें मुसलमानों की संख्या 23 से 41 फीसदी तक है।
इसमें कोई छिपी बात नहीं है कि बीजेपी के हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद से अधिकतर लिबरल लोगों, खास तौर से मुसलमानों की अधिकांश आबादी आक्रांत है। स्वाभाविक ही इन सीटों पर बीजेपी के लिए संभावना कम होती गई है। ये सीटें हैं- यूपी में गाजियाबाद, सहारनपुर, कैराना, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, मेरठ और बागपत, उत्तराखंड में हरिद्वार, बंगाल में कूचबिहार, तेलंगाना में हैदराबाद और सिकंदराबाद, छत्तीसगढ़ में बस्तर और जम्मू-कश्मीर में जम्मू।
पश्चिमी यूपी की सीटों को लेकर बीजेपी का चिंतित होना इसलिए भी उचित है, क्योंकि इस पूरे इलाके में मुसलमानों को चिह्नित कर उन पर आक्रमण करने की घटनाएं अब भी जारी हैं। अभी 21 मार्च को ही गुरुग्राम में हिंदुत्ववादी संगठन के लोगों ने घर में घुसकर एक मुस्लिम परिवार के लोगों को बुरी तरह मारा-पीटा और उन्हें पाकिस्तान जाने को कहा। गुरुग्राम हो भले ही हरियाणा में लेकिन दिल्ली से सटे एनसीआर में होने की वजह से इस तरह की घटनाएं पूरे क्षेत्र को प्रभावित करती हैं और यह इलाका मुस्लिम बहुल है।
इस क्षेत्र में मुसलमानों की तरह दलितों को भी पिछले दो-तीन साल में बहुत कुछ झेलना पड़ा है। सहारनपुर में 2017 में दबंगों ने जातीय संघर्ष को भड़काया। उन लोगों ने दलितों की पिटाई की, एक की हत्या कर दी और पचासों दलितों के घर जला दिए थे। हद तो यह हुई कि इस मामले में भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर को ही एनएसए के तहत जेल में डाल दिया गया। उन्हें करीब डेढ़ साल बाद जेल से रिहा किया गया।
लेकिन चंद्रशेखर ने अपनी आग ठंडी नहीं होने दी है। उन्होंने इस बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव लड़ने की घोषणा भी की हुई है। इस इलाके की राजनीति पर नजर रखने वाले एक कॉलेज शिक्षक ने कहा कि सहारनपुर से चंद्रशेखर भले चुनाव नहीं लड़ रहे हों लेकिन इस सीट का जो कॉम्बिनेशन है, वह बीजेपी के लिए डराने वाला है। यहां 42 फीसदी मुसलमान के साथ 22 प्रतिशत दलित हैं। वह उल्टा पूछते हैं, आप ही बताइए, इनमें से कितने फीसदी बीजेपी को वोट देना चाहेंगे।
वैसे, यूपी में बीजेपी विरोधी दलों के बिखराव से बीजेपी आरंभिक तौर पर भले ही खुश हुई थी, जैसे-जैसे चुनाव की गर्मी बढ़ रही है, उसे अंदाजा हो गया है कि लोग उससे इतने आजिज हो चुके हैं कि स्ट्रैटेजिक वोटिंग करने की ठान चुके हैं। मतलब, वे जात-धर्म से ऊपर उठकर उस उम्मीदवार के पक्ष में वोटिंग करेंगे जो सबसे सशक्त हो। इसलिए ही परेशान बीजेपी हर प्रकार के हथकंडे अपना रही है।
पिछले साल हुए कैराना लोकसभा उपचुनाव में संयुक्त विपक्ष की उम्मीदवार राष्ट्रीय लोकदल की तबस्सुम हसन ने बीजेपी प्रत्याशी को 44,618 मतों से पराजित किया था। इस बार इसे दोहराए जाने की आशा से बीजेपी की नींद खराब है। इस फेज में तीन अन्य सीटें ऐसी हैं जिस पर 2014 में भी एसपी, बीएसपी और आरएलडी ने मिलकर लड़ा होता, तो बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ता। ये सीटें हैंः बिजनौर, मेरठ और बागपत।
पिछली बार बागपत में बीजेपी को 42.2 जबकि इन तीनों को कहीं ज्यादा 55.3, बिजनौर में बीजेपी को 45.9 जबकि इन तीनों को मिलाकर 50.5 और मेरठ में बीजेपी को 47.9 जबकि इन तीनों को थोड़ा कम 46 फीसदी मत मिले थे। पिछली बार अलग-अलग चुनाव लड़ने की वजह से इनके मत बिखर गए थे। इस बार ऐसा होने की कोई संभावना नहीं है। और ये भी बीजेपी के लिए चिता का कारण बना हुआ है।